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मैं रोना चाहता हूँ!
आँसू भरे हुए दिमाग पर जोर डाल रहा हूँ
कि बूँद भर भी नहीं निकलेगा आँसू
रोना तो हमेशा किसी के सामने चाहिए
अपने ही सामने बैठ कर रोना
हमेशा की तरफ इस बार भी कम टिका
जब कि मैं चाहता हूँ खूब रोऊँ
इधर उधर देख कर रोना भी
अंततः अपनी तरफ देख कर रोना बन जाता है
इसमें सोने की तुक मिला दूँ क्या?
या फिर खोने का?
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